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कविता

आस्था के फूल

ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’


ढह गया मंदिर तुम्हारे देवता का,
बुझ गई
आराधना की ज्योति, निर्मल
दब गई वह भावना की मूर्ति-पूजित पत्थरों से
भरा गंगाजल कलश रीता पड़ा है।
किंतु वे दो आस्था के फूल जो तुमने
समर्पण की घड़ी में रख दिए थे,
आज भी उस खंडहर में खिल रहे हैं,
क्योंकि अब भी आस्था जीवित तुम्हारी।
भले मंदिर ढहे,
गंगाजल कलश का सूख जाए,
मूर्ति दब जाए शिला से,
किंतु जब तक फूल होंगे आस्था के
साधना जिंदा रहेगी,
देवता जिंदा रहेंगे।

 


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